महाशिवरात्रि आज, लग रहे बम-बम भोले के जयकारे, पर्वत से सागर तक शिव…

हरिद्वार से शिवालिक पहाड़ियों की रेंज तो शुरू हो जाती है, लेकिन हिमालय के पहाड़ों पर चढ़ना हो तो ऋषिकेश से ही असली चढ़ाई शुरू होती है. ऋषिकेश से 30 किमी की चढ़ाई पर है नीलकंठ मंदिर. शैव परंपरा का यह काफी बड़ा मंदिर है और माना जाता है कि विष पीने के बाद भगवान शिव यहीं पर आ गए थे. मधुमती और पंकजा नदियों के संगम पर बना यह मंदिर 5500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है. हर वर्ष शिवरात्रि पर यहां पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली और पंजाब के श्रद्धालु काफी बड़ी संख्या में आते हैं. इस मंदिर की देख-रेख की जिम्मेदारी महा-निर्वाणी पंचायती अखाड़े के पास है. पहले तो ऋषिकेश से यहां आने का पैदल रास्ता ही था, वह भी तीखी चढ़ाई वाला. जो भी तीर्थयात्री चारधाम यात्रा के लिए निकलते वे ऋषिकेश के बाद पहला पड़ाव यहीं पर डालते हैं.

हालांकि 20 साल से यहां पर ऋषिकेश से पक्का सड़क मार्ग बन गया है और मंदिर में इतनी भीड़ होती है कि हर अमावस्या और शिवरात्रि को यहां दर्शन के लिए लंबी लाइन लगानी पड़ती है. शैव परंपरा के अखाड़े हर महीने की कृष्ण-पक्ष तेरस को शिवरात्रि मनाते हैं और फागुन महीने की इस तिथि को महाशिवरात्रि कहते हैं. इस दिन साधुओं के साथ-साथ गृहस्थ भी शिवरात्रि मनाते हैं.

नीलकंठ की भभूत

यहां पर भभूत (अनवरत जलने वाले कुंड की राख) ही प्रसाद के रूप में मिलता है. आज का नीलकंठ मंदिर महारानी अहिल्या बाई का बनवाया हुआ है. आम दिनों में यहां सन्नाटा रहता है. सावन की तेरस को भी शिवरात्रि के तौर पर मनाया जाता है, लेकिन वह तेरस कांवड़ियों के लिए है. वे गंगाजल लाकर शिवलिंग पर अर्पित करते हैं. उस दिन भी यहां कांवड़ियों के बीच से गुजर कर जाना बहुत मुश्किल होता है.

महा-निर्वाणी अखाड़े का मंदिर

2010 की महाशिवरात्रि को हम हरिद्वार ऋषिकेश होते हुए नीलकंठ मंदिर गए थे. मणिकूट मंदिर की घाटी में स्थित यह मंदिर द्वादश ज्योतिर्लिंगों में भले न हो, लेकिन इसकी प्रतिष्ठा बहुत अधिक है. उस दिन हमें दो किलोमीटर लंबी लाइन में लग कर मंदिर तक पहुंचना पड़ा था. यह मंदिर घाटी के संकरे रास्ते पर है, लेकिन इसका प्रांगण विशाल है और मंदिर के पास संस्कृत विद्यालय है. यात्रियों के लिए एक धर्मशाला भी है.

संगम पर नहाने की और महिलाओं के लिए वस्त्र बदलने के लिए कॉटेज भी बनी हुई है. इसी मंदिर में जब हम 1980 में गए थे, तब पैदल मार्ग ही था. हम स्वर्गाश्रम से 10 बजे सुबह चले थे और 14 मील की चढ़ाई चढ़ने के बाद धूप ढलने के वक्त पहुंचे थे. हमने हरिद्वार स्थित महा-निर्वाणी अखाड़े के प्रमुख से मंदिर के महंत के नाम एक चिट्ठी लिखवा ली थी. कुछ ही साधु यहां रहते हैं.

सधुक्कड़ी जीवन

ऊपर पहुंचने पर हमारा भव्य स्वागत किया गया और हमें धर्मशाला में टिकाया गया. शाम वहां की ठंडी हवा नीचे की गर्मी से निजात दिला रही थी. हम लोग मणिकूट पर्वत पर चढ़ने लगे तो एक युवा साधु हमारे साथ चला. उसने बताया कि ऊंचाई पर यहां भालुओं का डर है. भालू अक्सर आदमी के पीछे दो पांवों पर चलने लगता है. आगे वाले को लगता है कि पीछे कोई और आदमी होगा. मौका पाते ही भालू हमला कर देता है.

रात को संस्कृत विद्यालय के बटुकों ने हमें सधुक्कड़ी भोजन परोसा. अच्छी किस्म का चावल, चने की दाल और एक चमचा ताया हुआ घी. भोजन सादा होते भी दिव्य था. रात को कंबल फर्श पर पड़ी कालीन पर बिछाए गए और ट्रंक से नए कंबल निकालकर हमें ओढ़ने के लिए दिए गए. युवा साधुओं ने बताया कि हर महीने की शिवरात्रि पर यहां भंडारा चलता है. न यहां भोजन की कमी पड़ती है, न बिस्तरों की.

क्यों की जाती है महादेव के शिवलिंग रूप की पूजा? 

वेदों के अनुसार, भगवान शिव ही एकमात्र देवता हैं जिनकी पूजा लिंग के रूप में की जाती है। उन्हें समस्त ब्रह्मांड का मूल कारण माना जाता है, इसलिए उनकी लिंग रूप में पूजा की जाती है। भगवान शिव को आदि और अंत का देवता कहा गया है। उनका न कोई रूप है और न कोई आकार; वे निराकार हैं। लिंग को भगवान शिव का निराकार रूप माना जाता है, जबकि उनका साकार रूप शंकर है। शिवलिंग को निराकार ब्रह्म का प्रतीक माना जाता है। वायु पुराण के अनुसार, प्रलय के समय हर महायुग के बाद समस्त संसार इसी शिवलिंग में समाहित हो जाता है, और फिर इसी शिवलिंग से सृष्टि का आरंभ होता है। वेदों में ‘लिंग’ शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए प्रयोग किया गया है, जो 17 तत्वों से मिलकर बना होता है।

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