हर साल की तरह ओडिशा के पुरी की जगन्नाथ रथ यात्रा 7 जुलाई से शुरू हो चुकी है. महाप्रभु जगन्नाथ की हर साल निकलने वाली रथ यात्रा आस्था, भक्ति का अलौकिक समागम है. जगन्नाथ रथ यात्रा हर साल आषाढ़ मास के द्वितीया तिथि को निकाली जाती है. 53 साल बाद इस बार यह रथ यात्रा 7 जुलाई 2024, दिन रविवार को 5 विशेष शुभ योग शुरू हुई है. जो कि बहुत ही दुर्लभ संयोग माना जा रहा है. ग्रह-नक्षत्रों की गणना के अनुसार इस साल दो-दिवसीय यात्रा आयोजित की गई है, जबकि आखिरी बार 1971 में दो-दिवसीय यात्रा का आयोजन किया गया था. पंचांग के अनुसार आषाढ़ शुक्ल द्वितीया तिथि 7 जुलाई को तड़के सुबह 3:44 बजे प्रारंभ चुकी है और 8 जुलाई की तड़के सुबह 4:14 बजे तक रहेगी. इसके चलते श्रद्धालुओं को भगवान जगन्नाथ की पूजा करने के लिए पूरा दिन मिलेगा. आज 7 जुलाई रविवार को रवि पुष्य नक्षत्र, सर्वार्थ सिद्धि योग, शिववास, समेत कई शुभ योग का निर्माण हुआ है. रवि पुष्य योग में सोना, चांदी, घर, वाहन खरीदना बहुत शुभ माना जाता है. इसके अलावा इस शुभ योग में गृह प्रवेश करना, नए काम की शुरुआत करना भी अति उत्तम माना गया है.
भारत के उड़ीसा राज्य का पुरी क्षेत्र जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्री जगन्नाथ जी की मुख्य लीला-भूमि है। उत्कल प्रदेश के प्रधान देवता श्री जगन्नाथ जी ही माने जाते हैं। यहाँ के वैष्णव धर्म की मान्यता है कि राधा और श्रीकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्री जगन्नाथ जी हैं। इसी प्रतीक के रूप श्री जगन्नाथ से सम्पूर्ण जगत का उद्भव हुआ है। पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरम्भ होती है। भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा: मंदिर से बाहर आकर जगत का कल्याण करते हैं भगवान जगन्नाथ श्री पुरुषोत्तम क्षेत्र (जगन्नाथ पुरी उड़ीसा) में होने वाली रथयात्रा और भगवान जगन्नाथ जी की महिमा अवर्णनीय है। इसका उल्लेख विशेष रूप से स्कंद पुराण वैष्णव के अंतर्गत पुरुषोत्तम क्षेत्र माहात्म्य में मिलता है। हालांकि रथयात्रा का वर्णन ब्रह्मपुराणादि अन्य पुराणों में भी है।
गजपति महाराज दिव्य सिंहदेव, महाप्रभु श्री जगन्नाथ मंदिर के प्रथम सेवक हैं, साथ में जगद्गुरु शंकराचार्य पुरी पीठाधीश्वर भी रहते हैं। स्कंद पुराण के अनुसार, प्रथम मन्वंतर के द्वितीय खंड सतयुग में जगन्नाथ जी की पहली रथयात्रा निकली थी। जब परमेश्वर इस पुरुषोत्तम क्षेत्र में नीलमाधव रूप में उपस्थित थे। उसी स्थान पर जहां यह श्रीमंदिर है। उस समय वह अंतर्धान हो गए। महाराजा इंद्रद्युम्न उस समय इस पृथ्वी के सम्राट थे। उनकी राजधानी अवंती नगरी में थी, जो अब उज्जैन है। उनकी प्रार्थना, तपस्या व भक्ति से वही परमात्मा परमेश्वर दारु (काष्ठ) विग्रह के रूप में बलराम और सुभद्रा के साथ प्रकट हुए। जब राजा इंद्रद्युम ने जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां बनवाई तो रानी गुंडिचा ने मूर्तियां बनाते हुए मूर्तिकार विश्वकर्मा और मूर्तियों को देख लिया जिसके चलते मूर्तियां अधूरी ही रह गई तब आकाशवाणी हुई कि भगवान इसी रूप में स्थापित होना चाहते हैं। इसके बाद राजा ने इन्हीं अधूरी मूर्तियों को मंदिर में स्थापित कर दिया। उस वक्त भी आकाशवाणी हुई कि भगवान जगन्नाथ साल में एक बार अपनी जन्मभूमि मथुरा जरूर आएंगे। स्कंदपुराण के उत्कल खंड के अनुसार राजा इंद्रद्युम ने आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन प्रभु के उनकी जन्मभूमि जाने की व्यवस्था की। तभी से यह परंपरा रथयात्रा के रूप में चली आ रही है। महाराजा इंद्रद्युम्न ने जगन्नाथ जी का भव्य मंदिर सतयुग के प्रथम मन्वंतर में निर्माण कराया। वह मंदिर 1500 फीट ऊंचा था। जिस स्थान पर भगवान का आविर्भाव हुआ है, वह इस समय का गुंडिचा मंदिर है। उस समय यह मंदिर नहीं था। भगवान का आविर्भाव एक मंडप में हुआ था। उस मंडप से लेकर जो आदि मंदिर महाराज इंद्रद्युम्न ने निर्माण किया था, वहां तक पहुंचाने के लिए प्रथम रथयात्रा की सूचना हमें स्कंद पुराण से मिलती है।
तीन अलग-अलग रथ में सवार होंगे भगवान जगन्नाथ, देवी सुभद्रा और बलभद्र
विश्व प्रसिद्ध भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा में नगर भ्रमण करने के लिए भगवान जगन्नाथ अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलराम संग निकलेंगे, फिर गुंडिचा माता के मंदिर में प्रवेश करेंगे जहां पर कुछ दिनों के लिए रहेंगे। इस रथ यात्रा में तीन अलग-अलग रथ होंगे ,जिसमें भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और बलराम शामिल होंगे। रथयात्रा में सबसे आगे बलराम, बीच में बहन सुभद्रा का रथ फिर सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ का रथ होता है। इन तीनों रथ की अपनी-अपनी खास विशेषताएं होंगी।
क्यों निकाली जाती है रथ यात्रा?
पद्म पुराण के अनुसार, भगवान जगन्नाथ की बहन सुभद्रा ने एक बार नगर देखने की इच्छा जाहिर की थी. तब जगन्नाथ जी और बलभद्र जी अपनी बहन सुभद्रा को रथ पर बैठाकर नगर दिखाने के लिए निकल पड़े. इस दौरान वे मौसी के घर गुंडिचा भी गए और 7 दिन तक वहां ठहरे. तभी से यहां पर रथयात्रा निकालने की परंपरा शुरू हुई है. हर साल 3 सुसज्जित रथों में विराजमान होकर प्रभु जगन्नाथ, भाई बलराम, बहन सुभद्रा के साथ के साथ नगर भ्रमण पर निकलते हैं. फिर गुंडीचा माता मंदिर जाते हैं. जहां 7 दिन तक उनकी खूब आवभगत होती है. इसके बाद वे श्री जगन्नाथ मंदिर को वापस आते हैं. रथ यात्रा में सबसे आगे बलराज जी का रथ, बीच में बहन सुभद्रा का रथ और सबसे पीछे जगन्नाथ प्रभु का रथ होता है. साल में यही एक मौका होता है जब प्रभु जगन्नाथ अपने भक्तों के बीच स्वयं आते हैं.
भगवान जगन्नाथ का रथ
भगवान जगन्नाथ के रथ को नंदीघोष अथवा गरुड़ध्वज कहा जाता है, इनका रथ लाल और पीले रंग का होता है। रथ हमेशा नीम की लकड़ी से बनाया जाता है। हर साल बनने वाले ये रथ एक समान ऊंचाई के ही बनाए जाते हैं। भगवान जगन्नाथ का रथ 44 फीट 2 इंच ऊंचा होता है। इस रथ में कुल 16 पहिए होते हैं। रथ यात्रा में भगवान जगन्नाथ का रथ सबसे आखिरी में चलता है।
रथ का नाम- नंदीघोष
ध्वज का नाम- त्रैलोक्यमोहिनी
ऊंचाई- 44 फीट 2 इंच
पहियों की संख्या- 16
संरक्षक- गरुड़
सारथी- दारुका
घोड़ों के नाम (सफेद)- शंख, बलाहक, सुवेता, दहिदाश्व
रथ की रस्सी का नाम- शंखचूड़ नागिनी
साथी देवता- मदनमोहन
भगवान बलराम का रथ
रथयात्रा में सबसे आगे बलराम जी का रथ चलता है। भगवान बलरामजी के रथ को ‘तालध्वज’ कहा जाता है और इसकी पहचान लाल और हरे रंग से होती है। बलराम का रथ 43 फीट 3 इंच ऊंचाई का होता है। भगवान बलराम के रथ में कुल 14 पहिए होते हैं और जिस रस्सी से इस रथ को खींचा जाता है उसे वासुकी कहते हैं।
रथ का नाम- तलध्वज
ध्वज का नाम- उन्नानी
ऊंचाई- 43 फीट 3 इंच
पहियों की संख्या- 14
संरक्षक- वासुदेव
सारथी- मातलि
घोड़ों के नाम (काला)- त्रिब्रा,घोरा, दीर्घशर्मा, शपथानव
रथ की रस्सी का नाम- बासुकी नाग
साथी देवता- रामकृष्ण
देवी सुभद्रा का रथ
देवी सुभद्रा के रथ को दर्पदलन कहा जाता है जो काले या नीले रंग का होता है। दोनों रथों के बीच में देवी सुभद्रा का रथ चलता है। देवी सुभद्रा का दर्पदलन रथ 42 फ़ीट 3 इंच ऊंचा होता है। इस रथ में 12 पहिए होते हैं। जगन्नाथ मंदिर से रथ यात्रा शुरू होकर 3 कि.मी. दूर गुंडीचा मंदिर पहुंचती है। इस स्थान भगवान की मौसी का घर भी माना जाता है। जिस रस्सी से देवी सुभद्रा का रथ खींचा जाता है उसका नाम स्वर्णाचूड़ा कहा जाता है।
रथ का नाम- दर्पदलन
ध्वज का नाम- नादंबिका
ऊंचाई- 42 फीट 3 इंच
पहियों की संख्या- 12
संरक्षक- जयदुर्गा
सारथी- अर्जुन
घोड़ों के नाम (लाल)- रोचिका, मोचिका, जीता, अपराजिता
रथ की रस्सी का नाम- स्वर्ण चूड़ा नागिनी
साथी देवता- सुदर्शन
क्यों खास है जगन्नाथ मंदिर?
भारत के 4 विभिन्न कोनों में स्थित पवित्र मंदिरों में से जगन्नाथ मंदिर भी एक है. तीन और मंदिर – दक्षिण में रामेश्वरम्, पश्चिम में द्वारका और हिमालय में बद्रीनाथ है. शायद ही पूरे विश्व में जगन्नाथ मंदिर को छोड़कर ऐसा कोई मंदिर होगा जहां भगवान कृष्ण, बलराम और सुभद्रा तीनों भाई – बहन की मूर्तियां एक साथ स्थापित हों. एक मान्यता के अनुसार एक बार श्रीकृष्ण की रानियों ने यशोदा की बहन और बलराम और सुभद्रा की मां रोहिणी से श्रीकृष्ण की रास लीलाओं के बारे में पूछा. रोहिणी को सुभद्रा के सामने श्रीकृष्ण की लीलाओं के बारे में बताना उचित नहीं समझा और उन्हें बाहर भेज दिया. सुभद्रा बाहर तो चली गईं लेकिन उसी समय वहां श्रीकृष्ण और बलराम भी आ गए. तीनों भाई-बहन छुपकर रोहिणी को सुन रहे थे. उसी समय वहां ऋषि नारद आए और तीनों भाई-बहन को एक साथ देखकर उन्होंने प्रार्थना की कि तीनों भाई-बहन हमेशा ऐसे ही साथ रहें. ऋषि नारद की प्रार्थना स्वीकार हुई और तभी से पुरी स्थित भगवान जगन्नाथ के मंदिर में तीनों एक साथ विराजमान हैं.
भगवान जगन्नाथ की मूर्ति क्यों है अधूरी
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार राजा इंद्रद्युम्न पुरी में जगन्नाथ जी का मंदिर बनवा रहे थे। उन्होंने भगवान जगन्नाथ की मूर्ति बनाने का कार्य देव शिल्पी विश्वकर्मा को सौंपा। मूर्ति बनाने से पहले विश्वकर्मा जी ने राजा इंद्रद्युम्न के सामने शर्त रखी कि वे दरवाजा बंद करके मूर्ति बनाएंगे और जब तक मूर्तियां नहीं बन जातीं तब तक अंदर कोई प्रवेश नहीं करेगा। उन्होंने ये भी कहा कि यदि दरवाजा किसी भी कारण से पहले खुल गया तो वे मूर्ति बनाना छोड़ देंगे। राजा ने भगवान विश्वकर्मा की शर्त मान ली और बंद दरवाजे के अंदर मूर्ति निर्माण कार्य शुरू हो गया, लेकिन राजा इंद्रद्युम्न ये जानना चाहते थे कि मूर्ति का निर्माण हो रहा है या नहीं। ये जानने के लिए राजा प्रतिदिन दरवाजे के बाहर खड़े होकर मूर्ति बनने की आवाज सुनते थे। एक दिन राजा को अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं दी तो उनको लगा कि विश्वकर्मा काम छोड़कर चले गए हैं। इसके बाद राजा ने दरवाजा खोल दिया। इससे नाराज होकर बाद भगवान विश्वकर्मा वहां से अंतर्ध्यान हो गए और भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां अधूरी ही रह गईं। उसी दिन से आज तक मूर्तियां इसी रूप में यहां विराजमान हैं और आज भी इसी रूप में उनकी पूजा होती है।
जनकपुर मौसी का घर
जनकपुर में भगवान जगन्नाथ दसों अवतार का रूप धारण करते हैं। विभिन्न धर्मो और मतों के भक्तों को समान रूप से दर्शन देकर तृप्त करते हैं। इस समय उनका व्यवहार सामान्य मनुष्यों जैसा होता है। यह स्थान जगन्नाथ जी की मौसी का है। मौसी के घर अच्छे-अच्छे पकवान खाकर भगवान जगन्नाथ बीमार हो जाते हैं। तब यहाँ पथ्य का भोग लगाया जाता है जिससे भगवान शीघ्र ठीक हो जाते हैं। रथयात्रा के तीसरे दिन पंचमी को लक्ष्मी जी भगवान जगन्नाथ को ढूँढ़ते यहाँ आती हैं। तब द्वैतापति दरवाज़ा बंद कर देते हैं जिससे लक्ष्मी जी नाराज़ होकर रथ का पहिया तोड़ देती है और हेरा गोहिरी साही पुरी का एक मुहल्ला जहाँ लक्ष्मी जी का मन्दिर है, वहाँ लौट जाती हैं। बाद में भगवान जगन्नाथ लक्ष्मी जी को मनाने जाते हैं। उनसे क्षमा माँगकर और अनेक प्रकार के उपहार देकर उन्हें प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं। इस आयोजन में एक ओर द्वैताधिपति भगवान जगन्नाथ की भूमिका में संवाद बोलते हैं तो दूसरी ओर देवदासी लक्ष्मी जी की भूमिका में संवाद करती है। लोगों की अपार भीड़ इस मान-मनौव्वल के संवाद को सुनकर खुशी से झूम उठती हैं। सारा आकाश जै श्री जगन्नाथ के नारों से गूँज उठता है। लक्ष्मी जी को भगवान जगन्नाथ के द्वारा मना लिए जाने को विजय का प्रतीक मानकर इस दिन को विजयादशमी और वापसी को बोहतड़ी गोंचा कहा जाता है। रथयात्रा में पारम्परिक सद्भाव, सांस्कृतिक एकता और धार्मिक सहिष्णुता का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है।
देवर्षि नारद को वरदान
श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा में भगवान श्री कृष्ण के साथ राधा या रुक्मिणी नहीं होतीं बल्कि बलराम और सुभद्रा होते हैं। उसकी कथा कुछ इस प्रकार प्रचलित है – द्वारिका में श्री कृष्ण रुक्मिणी आदि राज महिषियों के साथ शयन करते हुए एक रात निद्रा में अचानक राधे-राधे बोल पड़े। महारानियों को आश्चर्य हुआ। जागने पर श्रीकृष्ण ने अपना मनोभाव प्रकट नहीं होने दिया, लेकिन रुक्मिणी ने अन्य रानियों से वार्ता की कि, सुनते हैं वृन्दावन में राधा नाम की गोपकुमारी है जिसको प्रभु ने हम सबकी इतनी सेवा निष्ठा भक्ति के बाद भी नहीं भुलाया है। राधा की श्रीकृष्ण के साथ रहस्यात्मक रास लीलाओं के बारे में माता रोहिणी भली प्रकार जानती थीं। उनसे जानकारी प्राप्त करने के लिए सभी महारानियों ने अनुनय-विनय की। पहले तो माता रोहिणी ने टालना चाहा लेकिन महारानियों के हठ करने पर कहा, ठीक है। सुनो, सुभद्रा को पहले पहरे पर बिठा दो, कोई अंदर न आने पाए, भले ही बलराम या श्रीकृष्ण ही क्यों न हों। माता रोहिणी के कथा शुरू करते ही श्री कृष्ण और बलरम अचानक अन्त:पुर की ओर आते दिखाई दिए। सुभद्रा ने उचित कारण बता कर द्वार पर ही रोक लिया। अन्त:पुर से श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की वार्ता श्रीकृष्ण और बलराम दोनो को ही सुनाई दी। उसको सुनने से श्रीकृष्ण और बलराम के अंग अंग में अद्भुत प्रेम रस का उद्भव होने लगा। साथ ही सुभद्रा भी भाव विह्वल होने लगीं। तीनों की ही ऐसी अवस्था हो गई कि पूरे ध्यान से देखने पर भी किसी के भी हाथ-पैर आदि स्पष्ट नहीं दिखते थे। सुदर्शन चक्र विगलित हो गया। उसने लंबा-सा आकार ग्रहण कर लिया। यह माता राधिका के महाभाव का गौरवपूर्ण दृश्य था। अचानक नारद के आगमन से वे तीनों पूर्व वत हो गए। नारद ने ही श्री भगवान से प्रार्थना की कि हे भगवान आप चारों के जिस महाभाव में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्य जनों के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। महाप्रभु ने तथास्तु कह दिया।
पृष्ठभूमि में स्थित दर्शन और इतिहास
पुरुषोत्तम या शंख क्षेत्र जगन्नाथ पुरी का इतिहास अनूठा है। आज भी रथयात्रा में जगन्नाथ जी को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है, उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन भी हैं और कीकट गया जी क्षेत्र मे जन्मे विष्णु अवतार बुद्ध भी। पुरी का जगन्नाथ मन्दिर तो धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय का अद्भुत उदाहरण है। मन्दिर कि पीछे विमला देवी की मूर्ति है जहाँ पशुओं की बलि दी जाती है, सांख्य दर्शन के अनुसार शरीर के 24 तत्वों के ऊपर आत्मा होती है। ये तत्व हैं- पंच महातत्व, पाँच तंत्र माताएँ, दस इन्द्रियां और मन के प्रतीक हैं। रथ का निर्माण बुद्धि, चित्त और अहंकार से होती है। ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं। इस प्रकार रथयात्रा शरीर और आत्मा के मेल की ओर संकेत करता है और आत्मदृष्टि बनाए रखने की प्रेरणा देती है। रथयात्रा के समय रथ का संचालन आत्मा युक्त शरीर करती है जो जीवन यात्रा का प्रतीक है। यद्यपि शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उस माया संचालित करती है। इसी प्रकार भगवान जगन्नाथ के विराजमान होने पर भी रथ स्वयं नहीं चलता बल्कि उसे खींचने के लिए लोक-शक्ति की आवश्यकता होती है। सम्पूर्ण भारत में वर्षभर होने वाले प्रमुख पर्वों की ही तरह पुरी का रथयात्रा का पर्व भी महत्त्वपूर्ण है। पुरी का प्रधान पर्व होते हुए भी यह रथयात्रा पर्व पूरे भारतवर्ष में लगभग सभी नगरों में श्रद्धा और प्रेम के साथ मनाया जाता है। जो लोग पुरी की रथयात्रा में नहीं सम्मिलित हो पाते वे अपने नगर की रथयात्रा में अवश्य शामिल होते हैं परंतु तीर्थ दर्शन फल पुरुषोत्तम क्षेत्र पुरी में ही सम्भव है। उत्साहपूर्वक श्री जगन्नाथ जी का रथ खींचकर लोग अपने आपको धन्य समझते हैं।