मौन अयोध्या: सशंकित अयोध्या और अपनी पहचान से विस्थापित होती अयोध्या!

प्रभु श्रीराम की नगरी से प्रख्यात संतों में शुमार हनुमत पीठाधीश्वर आचार्य मिथिलेश नंदनी शरण की वेदना को मिलने लगा सामूहिक स्वर “बृहस्पति कुंड में कहां है देवगुरु बृहस्पति”?

अमिताभ श्रीवास्तव

समृद्धि न्यूज़ अयोध्या। प्रभु श्रीराम की नगरी अयोध्या जी में बुधवार को दक्षिण भारतीय प्रमुख संतो की मूर्ति स्थापना कार्यक्रम एक समारोह को रूप देकर समाप्त हो गया।’बृहस्पति कुंड’ नाम का वह स्थान जहां कभी एक अधूरा सरोवर अपनी दुर्दशा को दूर करने के लिए यहां के जिम्मेदारों की ओर आशान्वित होकर देख रहा था।बुधवार को उस आशान्वित सरोवर का समय बदला,श्रापित से दिखने वाले कुंड का जीर्णोद्धार किया गया, समारोहरूपी उत्सव में श्री रामनगरी से लेकर राजधानी तक के ओहदेदार शामिल हुए लेकिन यह क्या हो गया?जिस बृहस्पति कुंड पर दक्षिण भारतीय संतों की प्रतिमाएं स्थापित कर उसे नए तेवर और कलेवर में पेश कर दिया गया वहां देवगुरु बृहस्पति की मूर्ति रूपी छाया तो दूर, उनका नाम तक नहीं दिख रहा और तो और उसके आकार को लेकर भी अब बहस छिढ़ गई है। गुरुवार को इसकी वेदना सबसे पहले सोशल मीडिया के माध्यम से श्री रामनगरी के प्रख्यात संतों में श्रद्धानवत शुमार हनुमत निवास पीठाधीश्वर आचार्य मिथिलेश नंदनी शरण के शब्दों से गूंज उठी जिसे आहिस्ता आहिस्ता किसी की न किसी बहाने दर्द झेल रहे यहां के हर वर्ग के लोगों का समर्थन मिलने लगा और देखते ही देखते उनकी वेदना की यह पोस्ट सोशल मीडिया पर इस कदर छा गई जैसे व्यक्ति की अपनी वेदना हो।अपनी पोस्ट में आचार्य जी ने लिखा हैं कि ‘अयोध्या संवर रही है।बड़ी-बड़ी परियोजनाएं,चकित कर देने वाली धनराशियां तथा सामाजिक समरसता के अभूतपूर्व प्रयोगों से जगमगाती ऐसी अयोध्या तो कदाचित् राजा रामचन्द्र जी स्वयं रामराज्य में भी न बना पाये हों। किन्तु,मौसमी हरियाली काटने अयोध्या आये कारोबारियों के अतिरिक्त मुझ जैसे औसत अयोध्यावासियों की तो आंखों की रोशनी भी इस चमक से छिनती हुई दिख रही है।उन्होंने लिखा है कि अयोध्या के पौराणिक तीर्थ बृहस्पति कुण्ड का जीर्णोद्धार हुआ है।बड़े समारोह के साथ इसका लोकार्पण हुआ।इस कुण्ड के द्वार पर बुद्धाकृतियां आपको दिखेंगी। अन्दर भी तीन अन्य प्रतिमाएं दिखेंगी पर देवगुरु बृहस्पति आपको यहां नहीं दिखेंगे। अयोध्या के पौराणिक तीर्थों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण यह कुण्ड सरकारी/गैरसरकारी अतिक्रमण के बाद एक हवनकुण्ड जैसा बचा है जहां आपको बृहस्पति के दर्शन नहीं होंगे।यह एक बानगी भर है,अनेक प्रसंग हैं यहां,बस एक का उल्लेख किया है।वे लिखते हैं कि जातीय-प्रान्तीय और भाषायी राजनीति का उल्लू सीधा करने के लिये सारे आर्ष वाङ्गय,रामायण-महाभारत आदि को आग लगाकर उससे समरसता की भस्म बनाने का कार्य चल रहा है।देखना यह है कि यह चमत्कारी भस्म राजसत्ता को अक्षुण्ण कर पाती है या नहीं?पर हम अयोध्यावासी कहां जायें,किसके आगे रोयें और किससे पूछें?अयोध्या के सन्त नहीं बोलेंगे,वे इसके फल से सुपरिचित हैं।नागरिक अपने रोजमर्रा के दुःखों से ही नहीं उबर पा रहे।श्रीरामजन्मभूमि तीर्थक्षेत्र की चिन्ताएं भी अब उसके निर्धारित लक्ष्यों तक सीमित प्रतीत होती हैं।कोई मार्ग नहीं दिखाई देता।अपनी निष्ठा के विरुद्ध अयोध्या छोड़ जाने का विकल्प आत्मघात जैसा लगता है और इस त्रासदी के बीच अयोध्या में दिन-ब-दिन अपनी आस्था की नगरी को छीजते देखना भी जीने नहीं देता।
उन्होंने लिखा कि अयोध्या ने, यहां के पूज्य सन्तों ने और यहां की त्याग-बलिदान-परम्परा ने कभी कल्पना भी न की होगी कि श्रीरामजन्मभूमि को साकार देखने की जिस उत्कट अभिलाषा में उन्होंने इससे युक्त एक राजनैतिक दल के चुनावी घोषणा-पत्र को अपना समर्थन दिया था,वही सत्ता में आकर अयोध्या से उसकी अस्मिता छीनने लग जायेगा।तीन दशकों से अधिक के अनुभव में अयोध्या के पूज्य महान्तों को मैने इतना लाचार बेबस और पेशोपेश में पहले कभी नहीं देखा था। अयोध्या को लेकर इतने आत्मविश्वासहीन अयोध्यावासी कभी न थे कि उनके माथे पर कोई अतरंगी चिप्पक सटा दे और वे बिदकें भी नहीं।हमें श्रीरामजन्मभूमि मिल गयी है, इस प्रसन्नता का कोई मोल नहीं हो सकता।इस उद्यम में जिनका जैसा भी सहयोग मिला हो, अयोध्यावासी बारम्बार कृतज्ञ हैं। पूज्य सन्तों के कठिन संघर्ष के साथ-साथ संघ,भाजपा और विहिप इस यात्रा के नायक रहे हैं, उनका महत्त्व स्वीकृत है पर इस सबके बावजूद इस संघर्ष का मूल्य क्या अयोध्या की आत्मवत्ता छीनकर चुकाया जाना चाहिए।अपनी पोस्ट में उन्होंने पूछा है कि क्या कभी यह कहा गया था कि राजनैतिक उद्यमों से श्रीरामजन्मभूमि का संघर्ष निपटाने के बाद अयोध्या को राजनैतिक खेल का मैदान बना दिया जायेगा?भाजपा सरकार ने श्रीरामजन्मभूमि और अयोध्या को लेकर जो योगदान किया है,वह स्तुत्य है और पीढ़ियों तक स्मरणीय है पर क्या इससे अयोध्या को सत्ता का उपनिवेश बना दिया जाना चाहिए?अपना मर्म जाहिर करते हुए वे लिखते हैं कि मुझे नहीं पता कि इसका कौन-क्या अर्थ समझेगा और उसे मेरी बात कितनी समझ में आयेगी पर यह सब असहनीय है इसलिए कहना पड़ रहा है।बजट देकर,सड़कें बनाकर,रोजगार-बाजार विकसित करके अयोध्या से अयोध्या को छीन लेना सांस्कृतिक कैसे हो सकता है? इसके इतिहास-भूगोल को राजनीति और चुनावी कुण्ठाओ से विरूपित कर देना कैसे स्वीकार्य हो सकता है।इतना ही नहीं,यह सब कुछ लिखने के बाद वे इसका भी संकेत देते हैं कि मैं इस टिप्पणी के अप्रिय स्वाद से अवगत हूं।इसको पढ़ना सुखद नहीं है,लिखना भी नहीं..पर क्या सुख ही अन्तिम मानक होना चाहिए?चौक-चौराहे,सड़कें गलियाँ तो दूर अब हमारा इतिहास-भूगोल भी हमारा न रहेगा।लगभग प्रति सप्ताह वीआईपी आवागमन से घण्टों बन्द रास्ते,बड़ी राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा में मंडराते और स्थानीय कठिनाइयों की सतत उपेक्षा करते नेता।अनियोजित निर्माण प्रक्रिया में मनमानी करते ठेकेदार,बैटरी रिक्शा का अनियन्त्रित और असुरक्षित रेला…यही हमारी अयोध्या है।
हमारे परमाचार्य गोस्वामी श्रीतुलसीदास जी महाराज ने कहा था कि’ बनै तो रघुबर से बनै कै बिगरै भरपूर’ श्रीरघुनाथ जी बनाएं तो हमारी बिगड़ी बने अन्यथा सब बिगड़-जाय,आग लग जाय।हमें अपने प्रभु के अतिरिक्त किसी से अपना हित नहीं चाहिए।स्पष्ट है कि यह तब कहा गया था,जब उनके पास उनका भला करने का प्रस्ताव लिए सक्षम लोग रहे होंगे।आज इस दोहे की विपरीत फलश्रुति अयोध्या के समक्ष है।

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